My new poem on Women. we see daily crime against women, but don't stop that crime. In this poem , I tried to describe that pain of women.
Wednesday, October 19, 2016
My new poem on Women. we see daily crime against women, but don't stop that crime. In this poem , I tried to describe that pain of women.
Saturday, January 12, 2013
संजीवनी
काफी समय बाद देख रहा था उन्हे,चेहरे पर उदासी और अकेलेपन के भाव लिए जैसे किसी कभी न टूटने वाली खामोशी धारण किए एकटक शून्य को निहार रहे थे , मेरे अभिवादन की अवाज सुनकर, उन्होने मुझे देखा , वे खुश हो उठे उनका रोम-रोम खिल गया मानो लम्बे समय के बाद किसी को देखकर वात्सल्य का सागर मुझपर उड़ेल देना चाहते हों । और फिर शुरु हो गया उनके जीवन की उन घटनाओं का दौर जिन्हें शायद उनके परिवार वाले नहीं सुनना चाहते थे। वो लगातार बोलते जा रहे थे और मैं मूक श्रोता बना बीच-बीच में हां-हूं कर रहा था। लगातार दो घण्टे तक अपने दिल की बातें कह चुकने के बाद मुझे उनके चेहरे पर जो सन्तुष्टि दिखाई दी मानो जिसे वो वर्षों से खोज रहे हों।
और उनके चेहरे के भाव देखकर ऐसा लग रहा था मानो उन्हें जीवन संजीवनी मिल गई हो।
Thursday, March 1, 2012
मौकापरस्ती
सब्जी लेकर लौटते समय सड़क पर लगी भीड़ को देखकर मै रुक गया , सोचा कि देखू क्या मामला है ? पास जाकर देखा , एक आदमी को बहुत से लोग बुरी तरह पीट रहे थे ! उन्ही में से एक आदमी जो उसे पीटकर लौट रहा था ' मैंने पूछा ..... भाई साहब क्या हुआ ? पता नहीं, हुआ होगा कुछ........ उसने बेपरवाही से उत्तर दिया ....! पता नहीं...., लेकिन आप तो स्वयं उसे पीट रहे थे .......; फिर आपको पता क्यों नहीं ? मैंने पूछा !
वो जनाब खिसियानी हँसी हॅंसते हुए बोले, वो तो सभी उसे पीट रहे थे , तो हमने सोचा कि चलो बहती गंगा में हम भी हाथ धो ले ....... , इतना कहकर वो तो चले गए लेकिन मैं उनकी हँसी ..... तथा गंगा का मतलब खोजता रह गया...
Friday, February 17, 2012
मां
माँ
बस से उतरकर.. जेब में हाथ डाला, मैं चौंक पड़ा.., जेब कट
चुकी थी..। जेब में.. था भी क्या..? कुल 150 रुपए और एक
खत..!! जो मैंने अपनी माँ को लिखा था कि -
मेरी नौकरी छूट गई है; अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा…। तीन
दिनों से.. वह पोस्टकार्ड मेरी जेब में पड़ा था। पोस्ट..
करने को.. मन ही.. नहीं कर रहा था। 150 रुपए जा चुके
थे..। यूँ ......150 रुपए ..कोई बड़ी रकम नहीं थी., लेकिन..
जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लि...ए.. 150 रुपए..
1500 सौ से कम.. नहीं होते..!! कुछ दिन गुजरे...।
माँ का खत मिला..। पढ़ने से पूर्व.. मैं सहम गया..। जरूर.. पैसे
भेजने.. को लिखा होगा..। …लेकिन, खत पढ़कर.. मैं हैरान..
रह गया। माँ ने लिखा था — “बेटा, तेरा 500 रुपए का..
भेजा हुआ मनीआर्डर.. मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे !
…पैसे भेजने में.. कभी लापरवाही.. नहीं बरतता..।” मैं इसी..
उधेड़- बुन में लग गया.. कि आखिर.. माँ को मनीआर्डर..
किसने भेजा होगा..? कुछ दिन बाद., एक और पत्र मिला..।
चंद लाइनें.. लिखी थीं—आड़ी- तिरछी..। बड़ी मुश्किल से
खत पढ़ पाया..। लिखा था — “भाई, 150 रुपए तुम्हारे..
और 350 रुपए अपनी ओर से मिलाकर मैंने तुम्हारी माँ को..
मनीआर्डर.. भेज दिया है..। फिकर.. न करना।
माँ तो सबकी.. एक- जैसी ही होती है न..!! वह
क्यों भूखी रहे...?? तुम्हारा— जेबकतरा भाई..!!!
दुनियां में.. आज भी.. माँ को प्यार.. करने वाले.. ऐसे
इन्सान.. हैं..!!! यदि आप भी.. अपनी माँ..
को इतना ही प्यार.. करते हैं...!! तो भावुकता में.. आंसू..बहाने के वजाय.. माँ निश्छल प्यार करो ..।
Monday, May 30, 2011
सौदा
वंश का मन करता कि वह भी दूसरे बच्चो की तरह अपने पिता के साथ खेले लेकिन पिता पैसा कमाने की होड़ में जैसे अपने बच्चे को भूल ही गए थे। उनके पास अपने अकेले बच्चे के लिए बिलकुल भी समय नहीं था । एक दिन पिता कुछ जल्दी वापस आ गए, वंश पिता के इंतजार में दरवाजे पर बैठा हुआ था, पिता को देखते ही उसका चेहरा खिल गया ,वह खुश होकर पिता से लिपट गया , थोड़ी देर बाद जब उसके पिता हाथ-मुहं धोकर आ गए तब वंश ने पिता से पूंछा -पापा आप बहुत मेहनत करते हो न ? पिता ने कहा -हाँ !मैं देर तक काम करता हूँ । वंश ने फिर पूंछा - पापा आपको एक घंटा काम करने का कितना पैसा मिलता है ? पिता ने झुंझलाते हुए कहा-तुम्हे इन बातो से कोई मतलब नहीं होना चाहिए तुम अभी बच्चे हो और बच्चों जैसी बातें करा करो।वह बार-बार जिद करता रहा , आखिर पिता ने कहा कि मैं एक घंटे में १०० रूपये कामता हूँ। वंश थोड़ी देर तक चुप रहा और बोला- पापा मुझे ५० रूपये चाहिए।
क्या इसीलिये पूंछ रहे थे कि मैं एक घंटे कितने रूपये कामता हूँ ? क्या करोगे ५० रूपये का तुम, पिता ने गुस्से से पूछा ? मैं कुछ खरीदना चाहता हूँ, वंश ने जवाब दिया। मैं किसी फालतू चीज के लिए पैसे नहीं दे सकता , जाओ जाकर अपने कमरे में सो जाओ-पिता ने गुस्से में कहा ,वंश बार-बार जिद करता रहा तो पिता ने उसके एक चांटा जड़ दिया। वह रोते हुए अपने कमरे में चला गया। वंश को रोते हुए देख कर पिता का दिल पिघल गया , वह सोचने लगे कि वह वंश के साथ कुछ ज्यादा ही सख्त हो गए। उसने रोते हुए वंश को एक ५० का नोट दे दिया और कहा कि चलो अब लाइट बंद करो और सो जाओ।
बहुत देर तक जब वंश के कमरे की लाइट बंद नहीं हुई तो उन्होंने अन्दर जाकर देखा। वंश अपनी गुल्लक तोड़ कर पैसे गिन रहा था। अब तो उनके क्रोध की कोई सीमा न रही ।तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई गुल्लक को तोड़ने की ? क्या करोगे तुम इतने पैसों का ? गुस्से में पिता ने पूंछा।
क्योकि मेरे पास पूरे पैसे नहीं थे रोते हुए वंश ने कहा। उसने अपना हाथ आगे बढा कर कहा- पापा ! अब मेरे पास पूरे १०० रूपये हैं, मैंने बहुत दिनों में इकट्ठे किए हैं। क्या मैं आपका एक घंटा खरीद सकता हूँ ? आप प्लीज कल जल्दी घर वापस आ जाना, मैं आपके साथ कुछ समय बिताना चाहता हूँ ।
Wednesday, March 3, 2010
बाल
विनीत उपाध्याय की लघुकथा
बाल
निवाला थूकते हुए राहुल जोर से चिल्लाया ! राहुल की चीख ने आराम करती हुई सरला की नींद में खलल पैदा कर दी ! ये क्या बेहूदगी है ? रोजाना सब्जी और रोटी में बाल निकलते है ! अगर तुम्हारे बाल झड़ रहे है तो डॉक्टर से दवा क्यों नहीं लेती ? यूं रोजाना बाल क्यों खिलातीं हो! राहुल गुस्से में चिल्ला रहा था !
सरला ने तमतमाते हुए कहा अगर बाल बर्दाशत नहीं कर सकते तो नौकरानी का इंतजाम कर लो मै कोई तुम्हारी नौकरानी नहीं हूँ , जिसने खाना बनाने का ठेका ले रखा हो ! इतना कहकर सरला पैर पटकते हुए अपने कमरे मे चली गई ! बेटे और बहू की बढती हुई तकरार को देखकर माँ ने कुछ सकुचाते हुए बेटे से कहा - "बेटा ! बहू पर नाराज़ मत हो ! उसकी कोई गलती नहीं है , आजकल मेरे ही बाल झड़ रहे है ! अब आगे से मै ध्यान रखूंगी" माँ के शब्द सुनकर राहुल हतप्रभ रह गया और सोचने लगा की क्या सरला रोज माँ से ही .....................!
Monday, March 1, 2010
अंतहीन सफर
अंतहीन सफ़र
शायद उसे नियति ने बीच सागर में छोड़ दिया था
या फिर क्रूर लहरों ने किनारे से वापस मोड़ दिया था
विशाल लहरों से टकराते हुए
अपने अस्तित्व को बचाते हुए
वो डरावनी लहरों से लड़ रहा था
और धीरे धीरे किनारे की ओर बढ रहा था
जेसे बड़े बड़े भूचालो में विशालतम बृक्ष भी चिंतित हो उठते है
तथा छोटे-मोटे पेड़ अपने भंगुर अस्तित्व पर रो उठते है
उसी तरह चिंतित वह अथक प्रयास कर रहा था
जैसे कोई सन्निकट आई मृत्यु से लड़ रहा था
बढ रहा था क्षितिज से किनारे की ओर
डूबती सांसों से थामे आस की डोर
मनो पतित पावनी गंगा
सागर से मिलने को व्याकुल हो
या फिर रेगिस्तानी कटीले फूल
भोर की नमी से खिलने को आकुल हो
उसी तरह वो किनारे की साध में
अगाध सागर में डूबता उतराता चला जा रहा था
धीरे-धीरे उसे आने लगा किनारा नज़र
शेष रह गया था बस कुछ पलों का सफ़र
आखो में नए जीवन के सपने सजाने लगा
भावी जीवन की मधुर योजनाए बनाने लगा
हाय देव
तभी एक निर्दयी लहर ने
उसके सभी सपनों को तोड़ दिया
और उसे किनारे से दूर
बीच दरिया में छोड़ दिया
हाथ आई मंजिल को छूटते देख
वो नियति पर रो पड़ा
और डूबता उतराता फिर से
उसी अंतहीन सफ़र पर चल पड़ा