Monday, March 1, 2010

अंतहीन सफर

विनीत उपाध्याय की रचना
अंतहीन सफ़र

शायद उसे नियति ने बीच सागर में छोड़ दिया था
या फिर क्रूर लहरों ने किनारे से वापस मोड़ दिया था
विशाल लहरों से टकराते हुए
अपने अस्तित्व को बचाते हुए
वो डरावनी लहरों से लड़ रहा था
और धीरे धीरे किनारे की ओर बढ रहा था
जेसे बड़े बड़े भूचालो में विशालतम बृक्ष भी चिंतित हो उठते है
तथा छोटे-मोटे पेड़ अपने भंगुर अस्तित्व पर रो उठते है
उसी तरह चिंतित वह अथक प्रयास कर रहा था
जैसे कोई सन्निकट आई मृत्यु से लड़ रहा था
बढ रहा था क्षितिज से किनारे की ओर
डूबती सांसों से थामे आस की डोर
मनो पतित पावनी गंगा
सागर से मिलने को व्याकुल हो
या फिर रेगिस्तानी कटीले फूल
भोर की नमी से खिलने को आकुल हो
उसी तरह वो किनारे की साध में
अगाध सागर में डूबता उतराता चला जा रहा था
धीरे-धीरे उसे आने लगा किनारा नज़र
शेष रह गया था बस कुछ पलों का सफ़र
आखो में नए जीवन के सपने सजाने लगा
भावी जीवन की मधुर योजनाए बनाने लगा
हाय देव
तभी एक निर्दयी लहर ने
उसके सभी सपनों को तोड़ दिया
और उसे किनारे से दूर
बीच दरिया में छोड़ दिया
हाथ आई मंजिल को छूटते देख
वो नियति पर रो पड़ा
और डूबता उतराता फिर से
उसी अंतहीन सफ़र पर चल पड़ा

2 comments:

उमेश महादोषी said...

ek bhawpurn rachana....... achchhi lagi.

Unknown said...

vineet tumhari rachna padhi...tum jante ho tumne hamesha hi accha likha hain or maine saraha hain parantu kuch bindu rachna ko beech se tod se gaye...mouka laga to milne par bataunga otherwise u r good like always.........keep it up god bless u.